डेस्क: ननिबाला देवी, जिन्हें बंगाल की पहली महिला क्रांतिकारी माना जाता है. उन्होंने आजादी के लिए उस समय अपना योगदान दिया, जब अंग्रेजों का अत्याचार चरम पर था. उन्होंने बंगाल के क्रांतिकारियों को आश्रय देने, उनके अस्त्र-शस्त्र छुपा कर रखने और क्रांतिकारियों के लिए गुप्तचर की भूमिका निभायी. 1915 के अगस्त की बात है. उस समय देश की आजादी के लिए बंगाल में क्रांतिकारी संगठन युगांतर काफी सक्रिय था.
इसके सदस्यों को पकड़ने के लिए कोलकाता के श्रमजीवी समवाय संस्थान में पुलिस ने धावा बोला. नेता रामचंद्र मजूमदार गिरफ्तार हो गये. रामचंद्र के पास कई जानकारी और एक पिस्तौल थी, जिसका पता लगाना जरूरी था. उस समय एक पिस्तौल क्रांतिकारियों के लिए जान से भी अधिक महत्वपूर्ण थी. ऐसे में ननिबाला ने जेल में जाकर सूचना लाने का जिम्मा लिया. उन्होंने रामचंद्र की पत्नी बन कर जेल में जाने की योजना बनायी, लेकिन वह एक विधवा थी.
उस वक्त एक विधवा के किसी अन्य पुरुष की पत्नी सज कर जाने की कल्पना न तो कोई महिला कर सकती थी और न ही कोई पुलिसवाला ही. ननिवाला ने अपने श्वेत वस्त्र त्याग कर दुल्हन का श्रृंगार किया. वह रामचंद्र की पत्नी बन कर जेल पहुंचीं और पूरी जानकारी लेकर लौटीं.
भतीजे अमर चटर्जी से प्रेरित होकर लिया अंग्रेजों से पंगा
ननिवाला के भतीजे अमर चटर्जी (अमरेंद्रनाथ) युगांतर के शीर्ष नेता थे. उनसे ही प्रेरित होकर ही वह अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में कूद गयीं. प्रथम विश्वयुद्ध का समय था, जिसका फायदा उठा कर भारत के जुगांतर दल के क्रांतिकारी जर्मनी से अस्त्र-शस्त्र मंगा कर देशभर में विद्रोह की कोशिश में लगे थे, लेकिन अंग्रेजों को भारत-जर्मन षड्यंत्र की भनक लग गयी. इसी बीच वीर जतिंद्रनाथ मुखर्जी (बाघा जतिन) बालेश्वर में अंग्रेजों से भिड़ंत में शहीद हो गये.
उनके बलिदान ने लोगों में देश के लिए मरने-मिटने की लौ जगा दी. जादू गोपाल मुखर्जी के नेतृत्व में ब्रिटिश विरोधी आंदोलन को तेज किया गया. वहीं ब्रिटिश हुकूमत का कहर और गिरफ्तारी बढ़ गयीं. इस दौरान अधिकतर विद्रोही भूमिगत होकर काम कर रहे थे. ननिबाला देवी ने अमर और उनके साथियों को हुगली के रिसड़ा में दो महीने तक शरण दी. पुलिस की नजरदारी बढ़ते ही सभी रातों रात दूसरे ठिकाने पर चले गये.
चंदननगर में किराये के मकान में रखा था
विद्रोहियों को सितंबर 1915 में ननिबाला ने चंदननगर में एक मकान किराये पर लिया. उस समय पुलिस अत्याचार के भय से पुरुषों को मकान किराये पर कोई देना नहीं चाहता था. ननिबाला ने चंदननगर में विद्रोही नेता जादूगोपाल मुखर्जी, अमर चटर्जी, अतुल घोष, भोलानाथ चटर्जी, विजय चक्रवर्ती, विनय भूषण दत्त को पनाह दी थी. सभी के सिर पर हजार-हजार रुपये के ईनाम थे. इसीलिए वे दिन भर घर में रहते थे और रात को निकल पड़ते. पुलिस के पहुंचने से पहले वे गायब हो जाते. इधर, पुलिस को पता चल गया था कि ननिबाला देवी रामचंद्र की पत्नी नहीं है. ननिबाला के पिता सूर्यकांत को पुलिस रोज पकड़ कर ले जाती और सारा दिन पूछताछ करती. ननिबाला पुलिस की नजर से बच कर पेशावर जा रही थीं. इसी बीच वह कोलेरा की शिकार हो गयीं. पुलिस को सूचना मिली और बीमार अवस्था में ही उन्हें स्ट्रेचर पर पुलिस काशी जेल ले गयी.
असहनीय यातनाएं झेलीं, निर्वस्त्र कर डाला मिर्च पाउडर
जब वह गिरफ्तार हुई तो अमानवीय व असहनीय यातनाओं को झेलना पड़ा. इसका जिक्र कमला दासगुप्ता की पुस्तक ‘स्वाधीनता संग्राम में बंगाल की नारी’ में है. ननिबाला को जेल में एक अलग सेल में ले जाया गया, जहां दो महिला पुलिसकर्मियों ने जमीन पर गिरा कर मारा-पीटा. इसके बाद उनके कपड़े उतार कर उनके गुप्तांग व शरीर के अन्य अंगों पर पिसी हुई मिर्च डाल दी. इस उत्पीड़न में ननिबाला बेहोश हो गयीं. होश में आने पर फिर उत्पीड़न और पूछताछ का दौर चलता. उन्हें कहा जाता कि उन क्रांतिकारियों का पता नहीं बताने पर और बुरी तरह यातनाएं दी जायेंगी, तो वह आंखों में ज्वाला लेकर अधिकारियों के कहतीं, ‘जितनी खुशी हो तुम जुल्म करो, लेकिन मैं नहीं बताउंगी कि अमर चटर्जी कहां हैं, उनके साथी कहां हैं?’
जब खुफिया विभाग के अधीक्षक को जड़ दिया थप्पड़
रोज उन पर उत्पीड़न और पूछताछ चलता लेकिन वह अपना मुंह नहीं खोलतीं. जेल में एक बार गुप्तचर विभाग का अधीक्षक गोल्डी पूछताछ करने आया. वह अनशन पर थी तो उनसे भोजन करने के बाबत अपनी शर्त कागज में लिख कर देने को कहा, जब उन्होंने अपनी शर्तें लिख कर दी तो गोल्डी उसे फाड़ दिया. इस पर ननिबाला ने गोल्डी को थप्पड़ जड़ दिया. वह दूसरा थप्पड़ मारने ही वाली थी कि दूसरे कर्मचारी उन्हें काबू में कर लिया. इसके बाद 1818 में उन्हें प्रेसीडेंसी जेल में स्टेट प्रिजनर के तौर पर रखा गया. वह 21 दिनों तक भोजन त्याग कर अनशन पर बैठी रहीं. जेल प्रशासन के शर्त मान लेने के बाद वह भोजन की.
अभाव व गुमनामी में बिताया बाकी जीवन
दो वर्ष जेल में रहने के बाद उन्हें मुक्त कर गया, लेकिन वह काफी दुर्बल व असहाय हो गयी थीं. उन्हें पुलिस के डर से किसी ने आश्रय नहीं दिया. वह दर-दर ठोकरें खाती रहीं. बाली में भी जगह नहीं मिली. उत्तर कोलकाता की एक बस्ती में बाकी के जीवन उन्होंने अभाव में गुजारे. 1962-67 के बीच किसी समय उनकी मौत मानी जाती है. 1950 के बाद उन्हें 50 रुपये का पेंशन मिलने लगा था.
संक्षिप्त परिचय : हावड़ा के बाली में हुआ था जन्
1888 में हावड़ा जिला के बाली में उनका जन्म हुआ था. पिता का नाम सूर्यकांत बनर्जी और माता का नाम गिरिवाला देवी था. 11 वर्ष की उम्र में उनका विवाह हो गया था और 16 वर्ष की उम्र में विधवा हो गयी थीं. पति के निधन के बाद वह पिता
के घर लौट आयी थीं. उनमें अध्ययन के प्रति काफी रुचि थी, इसीलिए विधवा होने के बावजूद सामाजिक तानों की परवाह किये बगैर क्रिश्चियन मिशनरी स्कूलमें पढ़ने जाया करती थीं.